Kavita Gautam

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"आ अब लौट चलें"



" आ अब लौट चलें"

'पहला दृश्य'

चिलचिलाती धूप में धीरे धीरे बढ़ते हुए कदम आज अपने गांव की तरफ बढ़ तो रहे हैं लेकिन एक मायूसी के साथ। कितने सपने थे उसकी आंखो में जब गोपाल पहली बार इस बड़े से शहर में आया था। अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ। जितनी उमंग लेकर इस बड़े शहर में आया था, आज उससे भी ज्यादा मायूसी लेकर यहां से जा रहा है। उस घरौंदे में फिर से, जिसे रोजी रोटी की खातिर कभी छोड़ दिया था।

गोपाल एक अट्ठाइस वर्षीय युवक है। जो एक छोटे से गांव का रहने वाला है। वो गांव जिसमे उसका सारा बचपन बीता, जीवन की पाठशाला का पाठ भी उसने वहीं पढ़ा, और अपने जीवन की नई शुरुआत अपनी पत्नी मीना के साथ वहीं से की। लेकिन अब इससे आगे का जीवन जीना शायद वहां आसान नहीं था। माता पिता ने तो अपना जीवन दूसरों के खेतों में काम करके गुजार दिया ,और अपने बच्चों को जैसे तैसे दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े मुहैया करा दिए।

लेकिन गोपाल अपने दोनों बच्चों को पढ़ाना चाहता था। वो नहीं चाहता था कि जिस प्रकार उसके माता पिता और उसके भाई बहन शिक्षा से वंचित रहे, उसी प्रकार उसके बच्चे भी शिक्षा से वंचित रहें। 

गांव में रहकर तो ये कर पाना आसान नहीं था। भला गांव में रहकर वो कितना कमा पाता ? वैसे भी सिर्फ खेतों में काम करने के अलावा वहां कोई चारा भी कहां होता हैं?  और खेतों में काम करने का मूल्य भी कितना मिलता है?
गांव से बच्चों की खातिर आज नहीं तो कल शहर जाना ही पड़ेगा । 

गांव से संबंधित प्रत्येक प्रश्न पर प्रश्न चिन्ह लगाते उसके विचारों ने गोपाल को शहर जाने के लिए प्रेरित कर ही दिया। वो जनता था की बड़े शहर में रहना आसान तो नहीं हैं। मगर फिर भी अगर आने वाली पीढ़ी की स्थिति में कुछ सुधार करना है तो उसके लिए इस कदम को उठाना अतिआवश्यक है।

मेहनत तो गांव में रहकर भी करनी है तो फिर शहर में रहकर कम से कम बच्चों को कुछ शिक्षा तो मिल जायेगी। जिससे उन्हें हमारी तरह दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज तो नहीं होना पडेगा। इसी सोच के साथ गोपाल एक बड़े शहर में आकर रहने लगा।

गोपाल ने कुछ दिन एक सब्जी का ठेला लगाया । लेकिन ठेला लगाना उतना भी आसान नहीं था जितना की उसने सोचा था। सब्जी बिके या नहीं, ठेले का किराया और जगह का हफ्ता तो उसे चुकाना ही पड़ता ।

कुछ समय के बाद गोपाल ने एक दोस्त की मदद से एक फैक्ट्री में काम करना शुरू किया । मेहनत तो बहुत थी लेकिन एक कमाई का जरिया उसे मिल चुका था। वैसे भी गरीब को कभी मेहनत से डर लगता ही कब है? वो तो उसका जैसे जन्मसिद्ध अधिकार ही है। मेहनत तो नींव है उसकी उम्मीदों की, उसके सपनों की जिन्हें वो खुली आंखों से देखता तो है । लेकिन उन सपनों तक पहुंच पाना भी उसके लिए किसी सपने से कम नहीं होता।

गोपाल की पत्नी मीना को भी घरों में काम मिल गया। अपने पति के काम पर जाने और बच्चों के स्कूल जाने के बाद वो भी अपने काम पर निकल जाती। दोनों पति पत्नी अपने बच्चों के भविष्य की बेहतरी के लिए खूब मेहनत करते। 
मगर समय की चाल कहें या किसी देश की सोची समझी शाजिस। एक महामारी जैसी भयानक समस्या ने पूरे विश्व में धीरे धीरे अपने पैर जमा लिए। भारत भी उस समस्या से अछूता न रह सका। जिसका सबसे अधिक प्रभाव गरीबी की मार को झेल रहे लोगों पर ही सबसे अधिक रहा। 

धीरे धीरे महामारी ने अपना रूप अधिक विस्तृत कर लिया । महामारी के विस्तृत रूप को और अधिक बढ़ने से रोकने के लिए सभी कार्यालयों को बंद कर घर से ही कार्य करने का आदेश सरकार के द्वारा दिया गया।

मगर प्रत्येक कार्य को तो घर से किया जाना संभव नहीं था । ऐसे में छोटे छोटे रोजगार जिनसे न जाने कितनों के घरों का चूल्हा जलता था, सभी बंद हो चुके थे । महामारी फैलने के भय से घरों में काम करने वाली मीना के जैसी तमाम महिलाओं का काम भी अब छूट चुका था। 

जिन शहरों को गोपाल के जैसे मजदूरों ने अपनी रोजी रोटी का जरिया और अपने बच्चों के भविष्य का सुनहरा कल समझा था । वही शहर आज उन लोगों के लिए एक समस्या बन कर रह गए। सभी प्रकार के छोटे रोजगारों के बंद होने के बाद अब शहर के अंदर और बाहर जाने पर भी पाबंदियां लग चुकी थी। 

वे लोग जिनके घर चूल्हे नहीं जल रहे थे भला वे लोग घर के किराए का बंदोबस्त कैसे करते? कुछ लोगों को भले लोग मिल भी गए मगर सभी को तो ऐसे लोगों का मिलना संभव न था । जो एक दो महीने के किराए को माफ कर सकें। और वैसे भी ये समस्या मात्र एक दो महीने की तो नहीं दिखाई दे रही थी।

जिस उद्देश्य से लोगों ने शहरों की तरफ रुख किया था ।अब तो वो उद्देश्य भी दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। तो फिर भला वहां रहने का क्या अर्थ है ? यही सोचकर  मजबूरी में किसी को अपने गांव तो किसी को अपने छोटे शहरों का रुख करना पड़ा। ये समय के हालातों से मजबूर होकर लिया गया एक ऐसा निर्णय था। जिसके विषय में लोगों ने शायद सपने में भी कभी नहीं सोचा होगा।

मगर मरता क्या ना करता ? जिस प्रकार बच्चे को चोट लगने पर या भूख लगने पर मां की याद आती है। ठीक उसी प्रकार जब परदेश में कोई मुसीबत घेर लेती है तो अपने देश या अपने घर की याद आना तो स्वभाविक ही है । जिस प्रकार कोई बच्चा थककर मां की गोद में सुकून महसूस करता है। वैसे ही अपने घर जाकर भले ही रूखी सूखी रोटी मिले कम से कम चैन की नीद तो सो सकते है।

ऐसी ही कुछ उम्मीदों के साथ लोग अपने अपने घरों की ओर लौटने लगे। कुछ लोग जो समय रहते बस और रेलगाड़ी से अपने घर पहुंच तो  चुके थे । लेकिन भीड़ भाड़ भरे सफर के कारण न जाने कितने लोग महामारी की चपेट में आ चुके थे। वहीं लाखों की संख्या में लोग यातायात की सुविधाओं के बंद होने के कारण पैदल ही अपना सफर तय करने निकल पड़े।

बड़ा ही विचित्र दृश्य प्रतीत हो रहा था वह । आकाश छूती इमारतों के बीच। एक हाथ से अपने सिर पर ऊंची ऊंची गठरियों को संभाले और दूसरे हाथ से छोटे छोटे बच्चों के हाथों को थामे, न जाने कितने कदम बढ़े जा रहे थे उस मंजिल की ओर, जहां से चले थे कभी। अपनी एक पहचान बनाने इन नामी शहरों में । उन सपनों को पूरा करने जिन्हें टूटते देखा था न जाने कितनी दफा।

मगर भला समय की मार से कौन है जो बच पाया है ? बड़े बड़े  लोग भी अपना धैर्य खो बैठते हैं तो भला एक आम आदमी की क्या बिसात ?

परिस्थिति कुछ इस प्रकार प्रतीत हो रही थी जैसे कि विकास की दौड़ , दौड़ने वाला देश आज असमर्थ है अपनी स्थिति को छिपाने में । आज मजबूर है हकीकत से रूबरू होने के लिए। जो लोग चंद वोटों के लिए अपना ईमान डिगा देते हैं । आज उन लोगों का ह्रदय भूखे और धूप से तड़पते लोगों को देखकर पिघला तक नहीं।

या शायद राजनीति की अंधी सोच के कारण उन्हें दिखाई तक नहीं दिया , कि ये वही लोग हैं जिनकी बदौलत आज न जाने कितने ही लोग राजनीति में अपनी कुर्सी जमाए हुए हैं । न जाने कितने वादे किए जा रहे थे ? लोगों को उनके घर तक पहुंचाने के लिए। लेकिन उनकी हकीकत कुछ और ही थी। वैसे भी सरकार अगर कुछ करती भी है लोगों के लिए तो उनका हक कितना लोगों तक पहुंच पाता है ? इसे देखने वाला भी भला कौन होता है ?

जिन लोगों ने दिन रात मेहनत करके देश की तरक्की में अपना योगदान दिया । प्रत्येक छोटे से छोटे कार्य को करके देश की प्रगति में सहयोग किया। जिन लोगों ने देश की तरक्की की राह इन सड़कों को खुद अपने हाथों से बनाया।आज वही लोग मजबूर हैं उन्ही सड़को पर तपती धूप में पैदल चलने के लिए। जिन लोगों ने न जाने कितनी इमारतों को बनाया ।आज वही लोग मजबूर हैं इन शहरों में अपने सिर पर एक छत तलाशने के लिए।

जिन लोगों के बिना कभी इन बड़े शहरों के घरों का काम नहीं होता था। आज वही लोग मजबूर हैं ,कोई भी काम न मिलने के कारण अपने अपने घर लौटने के लिए।
गरीब आदमी तो वैसे भी अधमरा रहता है महंगाई की मार से। ऐसे में इस महामारी की मार ने तो उसे और भी बेहाल कर डाला। 

इन्ही सब बातों को सोचते सोचते गोपाल और उसके जैसे न जाने कितने लोग अपने घर पहुंचे । और न जाने कितने लोग घर पहुंचने से पहले ही गहरी नीद सो चुके थे? कितने बच्चे अनाथ हो चुके थे ? तो कितने घर उजड़ चुके थे ? लेकिन उनके दुखों को देखने वाला कोई नहीं था।

अपने पेट की खातिर जिन शहरों की तरफ लोगों ने कभी रुख  किया था । आज वापिस पेट की खातिर और जान बचाने की खातिर उन्हीं शहरों से अपने गांव लौटने के लिए मजबूर थे । एक दूसरे को ये कहते हुए आ अब लौट चलें अपने उन्हीं घरोंदों में जहां से चले थे कभी अपनी नई दुनियां बसाने इन शहरों में। 


'दूसरा दृश्य'

रोहन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है । आज विदेश से अपने देश भारत वापिस आ रहा है। उसे आज माता पिता के पास लौट आने की खुशी है तो, अपनी पत्नी नीलू के साथ  न आने का दुख भी है।  उसने कभी नहीं सोचा था की उसे कभी अपने देश भारत इस तरह लौटना पड़ेगा । लेकिन वहां विदेश में महामारी के बढ़ते प्रकोप के कारण सभी दूसरे देशों के लोग अपने देश लौटने के लिए लालायित थे।   
वहीं रोहन को भी अपने वृद्ध माता पिता की चिंता सताने लगी। लेकिन नीलू इसके लिए तैयार न थी ।और रोहन को मजबूरन अकेले ही भारत लौटना पड़ा।

नीलू जैसे न जाने कितने लोग थे । जो अपने देश वापिस आना ही नहीं चाहते है। क्योंकि वो पूरी तरह वहां के रंग  में रंग चुके है।
ऐसे ज्यादातर लोग इसलिए विदेश गए क्योंकि अपना देश उन्हें रहने के लिए उतना  अनुकूल नहीं लगा था ,जितना कि विदेश। लेकिन आज मजबूरी में सही उन्हें अपने देश लौटना पड़ा। और कुछ लोग ऐसे भी थे जो नीलू जैसे जीवनसाथी के साथ वहां रहने के लिए मजबूर थे।

ये वही लोग थे जिनका अपने देश की तरक्की में कोई योगदान तो नहीं था । लेकिन महामारी को बढ़ाने में कुछ योगदान अवश्य था। मगर फिर भी उनकी वापसी में कोई समस्या न आए उसके लिए सरकार की तरफ से विशेष हवाई उड़ानों के इंतजाम किये गए।

ये भी अपने आप में एक विचित्र दृश्य था। कि जिन लोगों को देश की समस्याओं से कोई लेना देना नहीं रहा । जो लोग विदेश में बसने ये सोचकर गए कि उनका देश जो उनकी पहचान हैं । उनकी नजरों में रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। फिर भी देश की सरकार उन लोगों के लिए अधिक चिंतित दिखाई दे रही है। 
और वे सभी लोग आराम पूर्वर्क अपने घर पहुंच चुके हैं।
पहले उन्हें अपना देश भले ही न भाया हो ,लेकिन आज उन्हें अपना देश बहुत भा रहा है। क्योंकि किसी भी अनहोनी की आशंका होने पर  ज्यादातर लोग अपने परिवार के पास वापिस लौटना चाहते हैं। 

पढ़े लिखे लोगों के लिए तो जीवन की शुरुआत करने में कोई ज्यादा तकलीफ नहीं आएगी। और वैसे भी पढ़े लिखे लोगों का ज्यादातर कार्य तो घर बैठे ऑनलाइन भी हो सकता है। फिर वो चाहे देश में हों या विदेश में । वहीं कुछ लोग सिर्फ महामारी के कम होने के इंतजार में आज भी विदेश जाने की राह देख रहें हैं।

कुछ लोग उनमें ऐसे भी हैं । जिन्हें अपने देश से लगाव तो है। मगर विदेश में रहना उनको इसलिए भाता  है। क्योंकि इनके ज्ञान को शायद यहां वो तवज्जो नहीं मिली जो विदेश में मिली। उनका मानना यह भी है कि यहां के नियम कायदों में अगर थोड़ा बदलाव किया जाए, अहम को त्याग कर लड़ने की बजाय जनता के हित में सोचा जाए। तो अपना देश किसी से कम भी नहीं है।

क्योंकि ये सत्य है कि जिस प्रकार इंसान की सूरत नहीं बल्कि उसके कर्म ही उसकी पहचान होते हैं। ठीक उसी प्रकार किसी भी देश की पुरानी श्रेष्ठ पृष्ठभूमि कब तक उसकी पहचान में चार चांद लगा पाएगी ? जब तक कि वर्तमान में लोगों को सही दिशा नहीं मिलेगी।

जब तक की कुछ विषयों पर गहराई से विचार नहीं किया जाएगा। जब तक कि लोगों में जागरूकता नहीं बढ़ेगी। जब तक कि देश की जड़ों छोटे छोटे उद्योगों और कृषि को बेहतर तरीकों  से नहीं सींचा जाएगा । जब तक कि जो समस्याएं मुंह फाड़े खड़ी हैं उन पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। जब तक की सभी लोगों को उनका आवश्यक हक रोटी ,कपड़ा , मकान आदि नहीं मिलेगा । जब तक की लोगों  की स्वास्थय व्यवस्था का उचित प्रबंध नहीं होगा। तब तक देश का दृश्य ऐसी नाजुक परस्थितियों में भला एक दम से कैसे संभल पाएगा ?

और तब तक लोग पढ़ लिख कर यूं ही विदेश जाने का ख्वाब देखते रहेंगे। और कुछ लोग यूंही बेहतरी की कामना में अपने हक को यूं ही ऐसी नाजुक परस्थितियों में गला घुटते देखते रहेंगे।

"किसी ने ठीक ही कहा है कि चमत्कार को ही लोग नमस्कार  करते हैं।"
बाकी तो बस एक भीड़ का हिस्सा हैं। वो हिस्सा जिसके रोने की आवाज कभी किसी के कानों तक नहीं पहुंचती।

अपने देश के लोगों की स्थिति को देखकर रोहन बहुत भावुक हो गया और यहीं रहकर कुछ ऐसा करने की सोचने लगा कि जिससे कुछ लोगों को प्रेरणा मिल सके । थोड़े ही सही लेकिन कुछ लोगों की जिंदगी में कुछ बदलाव ला सके और अपने देश के कुछ काम आ सके। प्रत्येक इंसान सीमा पर बंदूक उठाकर लड़ तो नहीं सकता । लेकिन और भी कई तरीकों से देश की सेवा तो कर ही सकता है।

रोहन ने अपनी पत्नी नीलू को फोन किया और एक और कोशिश की उसे अपने देश बुलाने की। नीलू जो कि विदेश में एक अध्यापिका है। रोहन ने उसे भी भारत आकर गरीब बच्चों की शिक्षा में योगदान करने के लिए कहा । नीलू को भी रोहन का विचार देर से ही सही लेकिन आज समझ आ ही गया।  शायद अब उसकी समझ में रोहन की और परिवार की अहमियत भी आ गई थी। भले ही देर से ही सही। और वो सब कुछ छोड़कर भारत लौटने को खुशी खुशी तैयार हो गई। 

रोहन नीलू को लेने एयरपोर्ट पहुंच गया। और एक दूसरे का हाथ थामकर दोनों ने एक दूसरे से कह ही दिया आ अब लौट चलें अपने देश । हमारी विलासिताएं जरूर विदेश में पूरी होती हों।  लेकिन हमारी जरूर हमारे देश को शायद ज्यादा है। 

समाप्त
कविता गौतम✍️


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2 Comments

🤫

20-Sep-2021 11:28 PM

बेहतरीन...सार्थक और सराहनीय प्रयास

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Kavita Gautam

21-Sep-2021 07:46 PM

बहुत धन्यवाद मैम 🙏

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